नई काया तलाशती राजनीति
भारतीय राजनीति की काया पूरी तरह से मृत हो चुकी जान पड़ती है। आये दिन आंदोलन कर इस काया मे जान डालने का काम तो किया जाता है। किन्तु क्या इस काया मे रौनक आ रही है? इस ओर किसी का ध्यान नही जा रहा है। अन्ना से लेकर बाबाओं तक राजनीतिज्ञों से लेकर सामाजिक सरोकारों तक आंदोलन हुये। लेकिन काया मे जान नही आ सकी। माना जाता है कि राजनीति पर ग्रहण लग गया है। जिससे आम लोगों को अपने हक के लडऩा पड़ रहा है। आज जिधर देखों आंदोलन करना आम हो गया है। जिससे अब आंदोलन के प्रति लोगों के विचार बदल गये है। दिल्ली तो आंदोलन करने की सरजमी बन गयी है। जिसे जब चाहे राजनीतिक रूप देने के लिए इस्तेमाल कर लिया जाता है। और तो और यहां आंदोलन के लिए जनता भी किराये पर मिल जाती है। लिहाजा थोड़े पैसे खर्च कर आराम से अपने हक की लड़ाई लड़ी जा सकती है। गौरतलब है कि पहले देश मे जितने भी आंदोलन किये जाते थे उनमे परिवर्तन की झलक दिखाई देती थी। लेकिन आज आंदोलन सिर्फ राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए किये जा रहे है। जिससे अब जनता का मोह भंग हो रहा है। इन केजरीवाल बढ़े हुए विजली के बिलों को लेकर अनशन पर बैठे है। उनके साथ देने के लिए अन्ना महारैली कर रहे है। लेकिन एक बार आंदोलन की पृष्ठभूमि को जिस तरह से रौंद दिया गया है। उससे तो आम जन मानस का भरोसा शायद ही मिल पाये। हलांकी आंदोलन का एक दूसरा पहलू भी है।जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लोग हक के लिए एकजुटता दिखाते है। लेकिन जो इसके कर्ता धर्ता होते है वही फिर सिद्धंातों से हट जाते है। तब इसकी दोहरी मार आमजन को झेलने के लिए विवश होना पड़ता है। ऐसी अवस्था मे आम नागरिक आंदोलन करने की बात को राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के सिवाय ज्यादा कुछ नहीं समझती है। गौरतलब है कि एक समय अन्ना केजरीवाल के साथ पूरा देश आंदोलन मे साथ हो चला था। और लोगों को लगने लगा था कि अब भ्रष्टाचार के खात्मे का अंत होकर राजनीति की काया बदलेगी। और वह पूरी तरह जन भावना के अनुरूप हो सकेगी। लेकिन जिस तरह से यह आन्दोलन भी राजनीति की महत्वाकांक्षा का शिकार हुआ उससे आम जन का आन्दोलन से मोह भंग हो गया है। आज राजनीति की चालोंं मे आन्दोलन को मोहरा बना दिया गया है। तब ऐसी भावनाओं का जन्म लेना सही ही प्रतीत होता है। लेकिन ऐसे मे लोगों के समक्ष एक सोचनीय प्रश्न खड़ा हो जाता है। कि जब आंन्दोलन करने से हक की लड़ाई पूरी नहीं हो पाती तब ऐसे मे क्या करना चाहिए। इसका जवाव सिर्फ राजनीति मे ही खोजा जा सकता है। देखा जाए तो इस राजनीतिक काया को एक ऐसे नेतृत्व की तलाश है। जो आमजन के हितों के साथ न्याय कर सके। हलांकी निकट भविष्य मे ऐसा होना नजर नहीं आ रहा है। जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने की बात पर जरा कम ही विश्वास होता है। राजनीतिक चाहत के वशीभूत हर किसी को कोई न कोई बहाना आंदोलन करने के लिए मिलना चाहिए । जिससे लोग आमजन की भावनाओं को अपने साथ जोड़ सके। और सत्ता सुख का भोग कर सके। उसके बाद फिर कोई भ्रष्ट राजनीतिक काया का पटाक्षेप करने की बात कर आंदोलन करने की बात कहेगा। और जनता का समर्थन हासिल कर सत्ता मे पहुंच जायेगा। बहरहाल राजनीतिक काया को बदलने की बात करना बेमानी है। व्यवस्था मे बदलाव करने की बात करना जरा सही होता। राजनीति का विकृ त रूप बनाने के जिम्मेदार लोग दिन प्रतिदिन आंदोलन के नाम पर सत्ताधारी होते रहेगें। और आमजन के बीच बदलाव के नाम पर आंदोलन की बात कहते रहेंगें। इन आंदेालन करने से शायद ही परिवर्तन हो लेकिन नेता बनने की चाहत तो अवश्य पूरी हो जायेगी। इन दिनो फिर केजरीवाल अनशन पर बैठ गये है। अन्ना भी साथ देने के लिए महारैली कर रहे है। लेकिन राजनीति की काया मे कोई वदलाव नजर नहीं दिख रहा ह
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