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दरिंदगी की भी हद है

Tuesday 2 April 20130 comments


दरिंदगी की भी हद है
साकेत सिंह तिवारी
कानून बनाकर दरिंदगी की घटनाओं पर अंकुश लगाये जाने की बात अक्सर तब याद आ जाती है। जब  आये दिन लुट रही इज्जत से कानून की अस्मत ही दंाव पर लगी जान पड़ती है। दिल्ली गैंगरेप के बाद कानून के कड़े प्रावधान बनाने के लिए भूचाल आ गया था। एक बानगी ऐसा जान पड़ता था कि अब किसी अबला की इज्जत पर आंच नही आयेगी। कानून जो कठोरता का आवरण पहन चुका है। लेकिन इसके बाद भी आये दिन रेप बलात्कार जैसी घटनाओं से अखबार भरे रहते है। जिससे कानून को लागू किये जाने की ओर या तो कठोरता से पालन नहीं किया जाता है। या फिर इस कानून की कठोरता का डर दरिंदगों को नही है। एक बार फिर दंरिदगों ने हृदय विदारक इस घटना को अंजाम दिया । लेकिन इस बार तो न कानून की कठोरता की बात की गई। और नही आवाम सड़को पर उतरा। जिससे यह बात तो समझ मे आ जाती है। कि दरिंदगी की भयावह पीड़ा को कानून मे सख्ती लाकर नहीं मिटाया जा सकता। वरना यदि ऐसा होता तो निश्चित तौर पर फिर किसी दामिनी की इज्जत नहीं लुटती। इस बार मूलरूप से उड़ीसा के मुनीरका गांव की रहने वाली एक लड़की जो गुंडगांव के सहारा माल मे एक बार डंासर थी। कि इज्जत दरिंदगों ने लूट ली । हुआ यूं कि वह अपने बड़ी बहन के साथ कहीं जाने के लिए निकली थी। तभी उसे एक गाड़ी वाला लिप्ट देता है। और फिर एक फलैट मे ले जाकर अपने तीन दोस्तों के साथ उसकी इज्जत लूट लेता है। और उसे उस हृदय विदारक दर्द को भोगने के लिए छोड़ देता है। बात एक बाला की नहीं है । जब से कानून मे कठोरता लाने की बात उठी। तब से ऐसा जान पड़ता है कि रेप की घटनाओं मे तेजी आ गई है। देश का कोई कोना इस तरह की घटनाओ से शायद ही अछूता रह पाया हो। इन वाक्यों पर कितनी सच्चाई के साथ न्याय हो पाता है? यह प्रश्र जेहन मे बराबर बना रहता है। कानून तो कानून के दायरे मे रहकर ही काम करने का राग अलापता है। लेकिन उसका दायरा क्या है? यह शायद ही किसी को पता होगा। बरना देखा जाये तो 50 प्रतिशत मामले मे कानून कुछ नहीं कर पाता । जब भी किसी मुद्दे को आवाम ने हवा दी है। तब कानून मे संशोधन कर उसे और कड़े बनाये जाने की बात की गई। लेकिन इस कानून से तो न अपराध पर अंकुश लगा और नाहीं अपराधियों को किसी तरह का भय। लिहाजा कानून को ही इन अपराधियों से अपनी साख बचानी पड़ती है।  हैवानियत के मंसूबों को लगाम लगाने की ओर एक सार्थक प्रयास करना चाहिए। कानून बनाकर लोगों की घृटित मानसिकताओं मे बदलाव नहीं लाया जा सकता है। इस दिशा मे पहल करते हुए समाज मे नारी के प्रति सोच मे वदलाव लाने की दिशा मे काम किया जाना चाहिए। जिससे समाज की भूमिका का सकारात्मक असर लोगों पर पड़े। और उनकी सोच मे परिवर्तन आ सके। देखा जाता है कि कानून मे नारी को समान दर्जा दिलाये जाने की बात है। और आज के दौर मे वह कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। ऐसे दौर मे भी वह समाज मे बराबरी का दर्जा पाने के लिए संघर्ष रत है। जिस कारण उसका शोषण हो रहा है। समाज मे एक वर्ग ऐसा भी है जो उसे वासना की वस्तु समझने की भूल करता है। कभी-कभी मुझे यह जानकार बड़ा ताज्जुब होता हैै। कि यह वही देश है जहां नारियों को देवी माना जाता था। ऐसी वीरांगनाओं ने क्या इसी धरती पर जन्मी थी? जो इस देश,समाज के कल्याण के लिए अपनी कुर्बानी दी थी। लेकिन आज यहां जिस तरह से मां बहनो को दरिदगी के बीच जीने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उसके जिम्मेदार हम सब आप ही है। पूरा समाज अनैतिकता की अनदेखी कर रहा है। जिससे समाज मे असमाजिक तत्वों का उदय हो रहा है। साथ ही यह कहना मुनासिब लगता है कि आगे चलकर समाज इसी अभिशाप को झेलने के लिए विवश होगा। तब समाज के सामने अपना अस्तित्व वचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा । यदि समाज नारियों के प्रति आदर की भावना को कायम करने की दिशा मे कदम  उठाये तो निश्चित रूप से नारी पर हो रहे अत्याचारों मे लगाम लग जायेगी। अन्यथा कानून कितना सख्त बन जाये अपराध पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकेगा। और हम इस गलतफहमी मे है कि कानून से अपराध पर कमी लायी जा सकती है। तो यह महज खाली पुआल ही सावित होकर रह जायेगा।

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