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काश समझता शब्दों का मायाजाल

Wednesday 3 April 20130 comments


काश समझता शब्दों का मायाजाल


मुझे जब भी कुछ लिखने को कहा जा जाता है तो मैं सोच में पड़ जाता हूं। एक अनजान सा डर सताने लगता है और इसी डर वश मैं कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगता हूं। तभी मुझे शब्द रूपी उदीप्त किरण की अनुभूत होती है।  जो मुझे क्यों लिखूं से क्या लिखूं की ओर प्रेरित करती है और उस ज्ञान रूपी किरण से सहारा पाकर शब्दों को श्रंखला बद्ध करने के लिए कलम और कागज के साथ चिपक जाता हूं। जिससे अनजाने ही कुछ ही देर में एक जीवंत लेख कहानी कथा बनकर तैयार हो जाती है। इस कथा में कभी सच्चाई फरेब कभी मुद्दे खबर आदि के दर्शन लोगों को हो जाते है। और लोग इससे प्रभावित होकर मतमतान तक करने लगते है। शब्दों का एक माया जाल है। और इस जाल में उलझने वाला एक नए संसार की रचना कर लेता है। एक-एक शब्दों को पिरोकर नया संसार रचने का दुस्साहस एक लेखक कवि आदि जो भी करते है। उससे निश्चय ही ज्ञान चक्षु चलायमान होते है। किन्तु एक लेखक या कवि की कल्पना के बारे में कभी आम जनों से अहसास किया है। यदि इसका उत्तर हां में है। तो निश्चित रूप से वह शब्दाकार कहा जायेगा। साथ ही जो इन शब्दों की महानता से परिचित नहीं होना चाहता वह तो उस निरपराध बोध की तरह क्षम्य है। जिसे किसी भी अपराध की कोई सजा नहीं मिलती। लेकिन शब्दों को पिरोकर जो माला तैयार होती है। वह निश्चित ही मूर्त, अमूर्त, ज्ञान, विज्ञान आदि चक्षुओं को रचनात्मकता की ओर प्रेरित करती है। जिससे साहित्य और संस्कृति का पुनर्जन्म होता है। मैं कुछ भी लिखने के पहले शब्दों की महानता पर चर्चा करने के लिए उद्वेलित रहता हूं। माना जाता है कि शब्दों से ही सृष्टि का सृजन हुआ है। ऐसे में शब्दों के कितने रूप देखने सुनने को मिलते है। इसकी जानकारी कल्पनाओं में भी होना मुमकिन नहीं है। शब्द किसी की पहचान है। तो किसी के विनाश की ओर उनकी भूमिका रहती है। मसलन एक व्यक्ति किसी को प्रभावित करने के लिए ऐसे शब्दों को गति देता है। जिससे सामने वाला उस पर मोहित हो जाता है। वहीं दूसरी ओर ऐसे कर्कश शब्दों की जमात है जो किसी को वेवजह किसी का दुश्मन बना देते है। ऐसे में सोचना पड़ता है कि शब्दों का कौनसा रूप मेरे लिए सही होगा? किन्तु कभी-कभी मेरे द्वारा दोंनो रूपों का सृजन हो जाता है। और मैं दो अलग-अलग रूपों में बट जाता हूं। जिसे लेकर कही सम्मनित तो कही अपमानित भी किया जाता हूं। खैर शब्दों की अपनी पहचान है। उन्हें किसी को पहचान देने की जरूरत नहीं पडती है। देखा जाए तो साहित्य का सृजन करने में इन्ही शब्दों का योगदान है। फिर साहित्य हमारी सभ्यता का निर्धारण करते है। जब शब्दों की इतनी आवश्यकता है। कि हमारे होन न होने का भाव इन्ही से परिलक्षित होता है। तो फिर उनको श्रंखला वद्ध क्यों किया जाए? बहरहाल शब्दा से धुनों का सृजन होना है। और धुन किसी महफिल को गुजायमान करती है। यू समझा जाए शब्द ही आदि और अंत है। इसके सिबाए दुनिया महज कोरा कागज है। जिस पर जैसे शब्द उकेर दिए गए। वैसी गति मिल गई। कई बार हमें अक्सर सुनने में आता है कि शब्द कितने कर्ण प्रिय है। कितने मधुर है। और ध्वनि कितनी कर्कश बनाई है। लेकिन शायद ऐसा कहने वाले नही जानते कि ऐसा बनाने में शब्दों की जो श्रंखला है। वह इसी शब्द संसार से लिए गए कुछ शब्द है। जो ऐसे पंक्ति बनाने का साहस किए है। जिससे से लोगों को इस तरह बोलने और सुनने को ये पंक्ति मिलती है। कांश इन शब्दों के संसार का हम पता नहीं करते तो हम और हमारी दुनिया कैसी होती है? इसी कल्पना भी हम नहीं कर सकते है। हम अपनी भावनाओं को व्यक्त करने समझने और महसूस करने में शब्दों की एक कड़ी है। जो हमे इनके महत्व का सहज ज्ञान कराती है। मुझे कभी-कभी इन शब्दों के खोने का डर लगने लगता है। यदि कही ये शब्द खो गए। तो हम और हमारी ये दुनिया स्वत: ही नष्ट हो जायेगी। तब हमारे होने या न होने का कोई औचित्य नहीं बचता है। वैसे भी जब कोई शब्द कार शब्दों के अस्तित्व से खिलवाड़ करने बैठ जाता है। तो न जाने उनके कितने विकृत रूप देखने सुनने को मिलते है। मेरा मन तो ऐसी कल्पना से ही कांप उठता है। लेकिन जाने अनजाने मुझे भी शब्दों से खिलवाड़ करना पड़ता है। जिसका दर्द भी देर सवेर मुझे ही सहन करने पड़ते है। शब्दों के साथ आप कैसा व्यवहार करते है। यह मैं नहीं जानता हूं लेकिन इतना स्पष्ट है कि इनसे खेलने वाला या तो शब्दकार कहा जायेगा या फिर अपराधी की भांति दुबका रहता है। उसे इस बात का इल्म सताने लगता है कि कौनसा शब्द कब बखेड़ा खड़ा कर देगा और मेरा सुख चैन छीन लेगा। मित्रों शब्दों से खेलना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन इनकी नाराजगी शामत ढहने वाली होती है। बहरहाल इनकी नाराजगी से जितना बचा जाए। तो बचना चाहिए। कल्पनाओं के सागर में जब हम डूब रहे होते है। तब वहां शब्द ही हमारा सहारा बनकर प्रकट होते है। और हमारी रक्षा करते है। जिससे एक ओर में साहित्य का सृजन करने की ओर उन्मुख होता हूं तो दूसरी ओर मनोरम चित्रण करने के लिए प्रेरित होता हूं। जिससे लोगों के बीच प्रसंसा के योग्य समझा जाता हूं। शब्दों की कथा कहना सहज नहीं हैं किन्तु जिसने भी इस कथा को कहने की जहमत उठाई वह कालांतर में शब्दाकार, कलमकार, तथा कथाकार आदि उपनामों से जाना गया है।  
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